रविवार, अक्तूबर 02, 2011

अपने समय की अकविता

दिन समय के प्याले से भाप की तरह उड़ता था.
एक तारतम्य था जो कभी टूटता नहीं था.
दुनिया के अनंत प्यालों से भाप उड़ती थी
अपने उड़ते रहने के एहसास को ख़त्म करते रहते हुए
और समय हमेशा बचा रह जाता था
अपने बचे रहने के एहसास को ख़त्म करते रहते हुए.

लोग सुबह घर से काम पर जाते थे
और काम से लौटकर घर आते थे.
घर, काम और शाम के बाद
सपनों की कहीं जगह नहीं बच पाती थी.
सपने हालांकि हर जगह थे बाज़ार में.
लगभग हर टी. वी. कॉमर्शिअल, हर दूसरा टी. वी. शो,
बैंक, दुकाने, खेल के स्टेडियम,
यहाँ तक कि अस्पताल भी सपने बेच रहे थे.

सब कुछ सपनामय था
लेकिन लोगों की आँखों में वह सपना कहीं नहीं था.
एक दुष्चक्र था जिसकी चूलों में पड़े हुए लोग
सुबह से शाम और शाम से सुबह करने में लगे थे.
दुष्चक्र के सपनों के हाथ बड़े लम्बे थे
और निगाहें बड़ी महीन.
वह उनके सपनों को 
धीरे-धीरे निकालकर अपने सपनों से बदल देता था.
लोग भरमाई हुई आँखों से सपनों को टी. वी. पर देखते रहते.
बाज़ारों में, बैंकों, अस्पतालों में सपनों का पीछा कर रहे थे लोग.

दिन समय के प्याले से भाप की तरह उड़ता था.
एक तारतम्य था जो कभी टूटता नहीं था.

6 टिप्‍पणियां:

सागर ने कहा…

दिन समय के प्याले से भाप की तरह उड़ता था.
एक तारतम्य था जो कभी टूटता नहीं था... bhaut hi sundar...

mridula pradhan ने कहा…

दिन समय के प्याले से भाप की तरह उड़ता था.
एक तारतम्य था जो कभी टूटता नहीं था.mujhe bahut achchi lagi apki ye kavita.....

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

अपने समय कि अकविता ...कविता बहुत अच्छी लगी ..सच को कहती हुयी ..

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') ने कहा…

दिन समय के प्याले से भाप की तरह उड़ता...

वाह!! सुन्दर...
सादर...

Prem Shukla ने कहा…

धन्यवाद यशवंत जी.

Prem Shukla ने कहा…

सागर जी, मृदुला जी, संगीता जी, हबीब साहब धन्यवाद.