गुरुवार, अक्तूबर 27, 2011

शहर में नगाड़े/प्रेम शुक्ला


चोट लगने पर चीखता है दर्द से वह भी
हरी घास और मिटटी की खुशबू से भर जाते हैं उसके नथुने
जीवन की सुगंध से भीग जाता है उसका भी सीना
याद रहते हैं उसे भी वे सारे भय, उल्लास, उत्तेजना,
मिलन का संगीत, दोस्त की बातचीत, माँ की चिंता
जाने कहाँ चला जाता है अक्सर
अपनी सारी उलझनें लेकर,
पा लेने की बेचैनी, खो देने की उमंग लिए
फिर बहुत दिनों तक नहीं मिलता.
स्टेशन की भीडभाड से निकलकर
पेड़ के नीचे, चाय की दुकान पर
फिर याद आता है उसका चेहरा.
कहाँ होगा वह.
कहीं किसी भय से बाहर आने की कशमकश में
किसी नयी धुन के मुहाने पर
माँ के लगाए पौधों में पानी देता हुआ.

शहर की दुपहरी में बत्ती के हरे होने की प्रतीक्षा में
शाम की उन्मुक्तता और रात के जगमगाते चौराहों पर
अक्सर जब एकदम ही लुप्त होता है मेरी चेतना से वह
बैठा किसी खेत की मेड पर चबा रहा होगा
पिछले साल का अनाज
साइकिल की चेन चढ़ाकर घर लौटता
ठंडी चांदनी रातों में लेटकर सपने देखता
धमाकों की धुंध में चीखतीं अँधेरी गलियां
नदियों में बहता संगीत और पौधों में उग आये हरे टमाटर के
बेटे की शादी के
गुड और बेसन की खुशबू में उसकी नींद तैरती होगी.

बहुत-बहुत दिनों तक नहीं मिलता वह
मैं भी पडा रहता हूँ अपनी दुनिया में मगन
सपनों से बाहर
नदियों से खाली
कुछ पता ही नहीं चलता कमी क्या है.
इस शहर में कुछ बात है
कुछ पता नहीं चलता कमी क्या है
पा लेने की उत्कंठा
खो जाने की पीड़ा
आगे बढ़ जाने के पहिये
पीछे रह जाने के तिलिस्म
तिलिस्म ऐसा जिसमे आगे जाने पर कुछ नहीं बचता
तिलिस्म भी नहीं.

पहियों पर आगे-आगे भागता शहर
बहुतों को धूल में गिराता
लटके हुए कईयों की श्रृंखला में आलोडन पैदा करता
जो दूर तक लटक जाए वो सबसे बड़ा सयाना.

स्टेशन के बाहर खड़े-खड़े फिर याद आती है उसकी आकृति
कहाँ होगा वह
चट्टानी विस्फोटों से निकलता
किसी घाटी में लम्बी होती गहनीली छायाओं के बीच बैठा नगाड़े बजाता
पक्षियों के कलरव में संगत करता
शिकारी बंदूकों के प्रतिरोध में तरकश सजाता.

शहर अपने पहियों पर निकल जाता है दूर
सीटियों की आवाज़ भी नहीं
स्टेशन पर अकेलों की भीड़ के बीच नितांत अकेलेपन में
फिर दिखता है उसका चेहरा
भीड़ के मामूलीपन के साथ चहकता.

शहर की मामूलियत में भटकता
खुद भी मामूली सा मैं
अपने साधारणपन और मामूलियत के बीच से निकलती है
उसकी आकृति
साफ़-साफ़ और तरोताज़ा.

हम साथ बैठकर चाय पीते हैं बहुत दिनों बाद
खचाखच भरी मालगाड़ियों के शोर के पीछे
गूंजता आता है संगीत
संघर्ष की ऊष्मा से नम तर हवा
पके हुए टमाटर की ठंडक
पैरों के नीचे बहती नदी
किसी भय की अनुगूंज
किसी उल्लास का कलरव.

कोई टिप्पणी नहीं: