शुक्रवार, सितंबर 26, 2014

ग़ज़ल 

बंदगी और दुआ सबको आजमाये हुए हैं
जाने कबसे ये सभी लोग बौखलाए हुए हैं.

एक हाथ में मरहम तो सौ हाथ में खंजर भी 
सियासी मर्ज़ हैं हाकिम के आजमाए हुए हैं.

गुलों की नाज़ुकी पैरों तले मसलते हैं 
जो पत्थरों के ख़ुदा जेहन में सजाये हुए हैं. 

वो चाँद ये मैखाने पैमाना-ओ-साकी सब 
हमीं रिंदों की बेरुखी के जख्म खाये हुये हैं. 

मसीहा बनके कल जो घूमते इतराते थे 
वज़ीर बन के वही बस्तियाँ जलाए हुये हैं.