मंगलवार, सितंबर 10, 2019

ग़ज़ल- नफ़रतों का खेल बड़ा है


नफ़रतों का खेल बड़ा है
रास्ते में सांप खड़ा है

दुश्मनी को पांव लगे हैं
अक्ल पे पत्थर पड़ा है

झूठ तो तख़्तानशीं है
सच कहीं रूसवा खड़ा है

बच के जिनसे चल रहे थे
उन्हीं कांटों पे पाँव पड़ा है

घर में घर को ढूंढता हूँ
ऐसा कुछ नश्शा चढ़ा है

उनसे क्या कहते कि उनके
बाद दिल सूना पड़ा है

दूर तक जाते भी कैसे
दिल वहीं अब भी अड़ा है

ज़िन्दगी रिसने लगी है
वक़्त इक कच्चा घड़ा है

वो हमज़ुबाँ होता भी कैसे
उसके दांतों में इक हीरा जड़ा है