मंगलवार, सितंबर 10, 2019

ग़ज़ल- नफ़रतों का खेल बड़ा है


नफ़रतों का खेल बड़ा है
रास्ते में सांप खड़ा है

दुश्मनी को पांव लगे हैं
अक्ल पे पत्थर पड़ा है

झूठ तो तख़्तानशीं है
सच कहीं रूसवा खड़ा है

बच के जिनसे चल रहे थे
उन्हीं कांटों पे पाँव पड़ा है

घर में घर को ढूंढता हूँ
ऐसा कुछ नश्शा चढ़ा है

उनसे क्या कहते कि उनके
बाद दिल सूना पड़ा है

दूर तक जाते भी कैसे
दिल वहीं अब भी अड़ा है

ज़िन्दगी रिसने लगी है
वक़्त इक कच्चा घड़ा है

वो हमज़ुबाँ होता भी कैसे
उसके दांतों में इक हीरा जड़ा है

शुक्रवार, सितंबर 26, 2014

ग़ज़ल 

बंदगी और दुआ सबको आजमाये हुए हैं
जाने कबसे ये सभी लोग बौखलाए हुए हैं.

एक हाथ में मरहम तो सौ हाथ में खंजर भी 
सियासी मर्ज़ हैं हाकिम के आजमाए हुए हैं.

गुलों की नाज़ुकी पैरों तले मसलते हैं 
जो पत्थरों के ख़ुदा जेहन में सजाये हुए हैं. 

वो चाँद ये मैखाने पैमाना-ओ-साकी सब 
हमीं रिंदों की बेरुखी के जख्म खाये हुये हैं. 

मसीहा बनके कल जो घूमते इतराते थे 
वज़ीर बन के वही बस्तियाँ जलाए हुये हैं. 

गुरुवार, अक्तूबर 27, 2011

शहर में नगाड़े/प्रेम शुक्ला


चोट लगने पर चीखता है दर्द से वह भी
हरी घास और मिटटी की खुशबू से भर जाते हैं उसके नथुने
जीवन की सुगंध से भीग जाता है उसका भी सीना
याद रहते हैं उसे भी वे सारे भय, उल्लास, उत्तेजना,
मिलन का संगीत, दोस्त की बातचीत, माँ की चिंता
जाने कहाँ चला जाता है अक्सर
अपनी सारी उलझनें लेकर,
पा लेने की बेचैनी, खो देने की उमंग लिए
फिर बहुत दिनों तक नहीं मिलता.
स्टेशन की भीडभाड से निकलकर
पेड़ के नीचे, चाय की दुकान पर
फिर याद आता है उसका चेहरा.
कहाँ होगा वह.
कहीं किसी भय से बाहर आने की कशमकश में
किसी नयी धुन के मुहाने पर
माँ के लगाए पौधों में पानी देता हुआ.

शहर की दुपहरी में बत्ती के हरे होने की प्रतीक्षा में
शाम की उन्मुक्तता और रात के जगमगाते चौराहों पर
अक्सर जब एकदम ही लुप्त होता है मेरी चेतना से वह
बैठा किसी खेत की मेड पर चबा रहा होगा
पिछले साल का अनाज
साइकिल की चेन चढ़ाकर घर लौटता
ठंडी चांदनी रातों में लेटकर सपने देखता
धमाकों की धुंध में चीखतीं अँधेरी गलियां
नदियों में बहता संगीत और पौधों में उग आये हरे टमाटर के
बेटे की शादी के
गुड और बेसन की खुशबू में उसकी नींद तैरती होगी.

बहुत-बहुत दिनों तक नहीं मिलता वह
मैं भी पडा रहता हूँ अपनी दुनिया में मगन
सपनों से बाहर
नदियों से खाली
कुछ पता ही नहीं चलता कमी क्या है.
इस शहर में कुछ बात है
कुछ पता नहीं चलता कमी क्या है
पा लेने की उत्कंठा
खो जाने की पीड़ा
आगे बढ़ जाने के पहिये
पीछे रह जाने के तिलिस्म
तिलिस्म ऐसा जिसमे आगे जाने पर कुछ नहीं बचता
तिलिस्म भी नहीं.

पहियों पर आगे-आगे भागता शहर
बहुतों को धूल में गिराता
लटके हुए कईयों की श्रृंखला में आलोडन पैदा करता
जो दूर तक लटक जाए वो सबसे बड़ा सयाना.

स्टेशन के बाहर खड़े-खड़े फिर याद आती है उसकी आकृति
कहाँ होगा वह
चट्टानी विस्फोटों से निकलता
किसी घाटी में लम्बी होती गहनीली छायाओं के बीच बैठा नगाड़े बजाता
पक्षियों के कलरव में संगत करता
शिकारी बंदूकों के प्रतिरोध में तरकश सजाता.

शहर अपने पहियों पर निकल जाता है दूर
सीटियों की आवाज़ भी नहीं
स्टेशन पर अकेलों की भीड़ के बीच नितांत अकेलेपन में
फिर दिखता है उसका चेहरा
भीड़ के मामूलीपन के साथ चहकता.

शहर की मामूलियत में भटकता
खुद भी मामूली सा मैं
अपने साधारणपन और मामूलियत के बीच से निकलती है
उसकी आकृति
साफ़-साफ़ और तरोताज़ा.

हम साथ बैठकर चाय पीते हैं बहुत दिनों बाद
खचाखच भरी मालगाड़ियों के शोर के पीछे
गूंजता आता है संगीत
संघर्ष की ऊष्मा से नम तर हवा
पके हुए टमाटर की ठंडक
पैरों के नीचे बहती नदी
किसी भय की अनुगूंज
किसी उल्लास का कलरव.

रविवार, अक्तूबर 02, 2011

अपने समय की अकविता

दिन समय के प्याले से भाप की तरह उड़ता था.
एक तारतम्य था जो कभी टूटता नहीं था.
दुनिया के अनंत प्यालों से भाप उड़ती थी
अपने उड़ते रहने के एहसास को ख़त्म करते रहते हुए
और समय हमेशा बचा रह जाता था
अपने बचे रहने के एहसास को ख़त्म करते रहते हुए.

लोग सुबह घर से काम पर जाते थे
और काम से लौटकर घर आते थे.
घर, काम और शाम के बाद
सपनों की कहीं जगह नहीं बच पाती थी.
सपने हालांकि हर जगह थे बाज़ार में.
लगभग हर टी. वी. कॉमर्शिअल, हर दूसरा टी. वी. शो,
बैंक, दुकाने, खेल के स्टेडियम,
यहाँ तक कि अस्पताल भी सपने बेच रहे थे.

सब कुछ सपनामय था
लेकिन लोगों की आँखों में वह सपना कहीं नहीं था.
एक दुष्चक्र था जिसकी चूलों में पड़े हुए लोग
सुबह से शाम और शाम से सुबह करने में लगे थे.
दुष्चक्र के सपनों के हाथ बड़े लम्बे थे
और निगाहें बड़ी महीन.
वह उनके सपनों को 
धीरे-धीरे निकालकर अपने सपनों से बदल देता था.
लोग भरमाई हुई आँखों से सपनों को टी. वी. पर देखते रहते.
बाज़ारों में, बैंकों, अस्पतालों में सपनों का पीछा कर रहे थे लोग.

दिन समय के प्याले से भाप की तरह उड़ता था.
एक तारतम्य था जो कभी टूटता नहीं था.

रविवार, नवंबर 14, 2010

कर्णधार

जिन्होंने बनाये तुम्हारे लिए शहर, सड़कें, इमारतें, वायुयान
जिन्होंने सजा दिए तुम्हारे बाज़ार
जिनके हिस्से के पैसों से चढाते हो अपने शेयर मार्केट तुम एक देश में
और दूसरे देश के सूचकांक लड़खड़ा जाते हैं.
जिनके पसीने से चमकती है तुम्हारी कोट की कालर,
महकती हैं तुम्हारी आस्तीनें
सभ्यता के सारे औज़ार घूमते हैं उनके ही इशारों पर
उन्होंने ही बनाई हैं बंदूकें और तोपें भी
तुम्हारे युद्ध और शांति के खेल के लिए.
और ये सब चलाना भी जानते हैं वे
तुमसे बेहतर.

१४ नवम्बर 2010

गुरुवार, फ़रवरी 18, 2010

एक सामूहिक निराशा से बातचीत

बेबसी ये क्या है,

जंजीरें ये कौन सी हैं,

वहम क्यूं है ये,

ये सन्नाटा कैसी शै है ?

कि राह दिखती भी है

जो कभी उजाले में

हमारे पांव भटकते ही चले जाते हैं.

कैसी है ऊब के ये सन्नाटा,

सियासी रात के तारीचिपचिपे पंजे,

गिरह लगा के कई राग और गीत कई घेरे हैं.

के गिरहबंद बहुत दिन, कई सवेरे हैं.

चलो के अब ये गिरह अब ही खुल के होगी फ़ना.

के अब तो ऊब में भी आ गई हैं झुर्रियां.

के गीत बस अभी खुल-खुल के सबपे बरसेंगे.

के फूल अब सभी आंखों में तैर जायेंगे.

के बात जब अभी रुक-रुक के थोड़ी निकलेगी,

तमाम रंग गली-कूचों में भर जायेंगे.

के बात टिकती है आ-आके सिर्फ़ गिरहों पर,

के रात रुकती है जा-जाके नई सुबह के पहले.

चलो, के चल के सभी गिरह हम रिहा कर दें.

चलो के आज बंद खिड़कियों को खोल दें हम.

रचनाकाल: मई 2005

सोमवार, मार्च 23, 2009


अन्त

जैसे सब थोड़ी-थोड़ी मौत चाहते हैं,
थोड़ी ज़िन्दगी के बाद.
लड़की चाहती है ज़हर,
झूठे प्यार के बाद
नेता चाहता है खौफ़,
भाषण के बाद.
सम्राट चाहता है शांति,
युद्ध के बाद.
न्यूज़ चैनल चाहता है एक कामर्शियल ब्रेक,
बूथ लुटने के बाद,

हर कोई चाहता है कोई न कोई झूठा दिलासा,
एक गहरी शर्म के बाद.
जैसे शब्द चाहते हैं अर्थ कोई,
बार-बार कहे जा चुकने के बाद.

ऐसी निरर्थकता में भी मैं चाहता हूँ एक सार्थक अन्त,
सारी निराशा के बाद.

Jan, 2006