बेबसी ये क्या है,
जंजीरें ये कौन सी हैं,
वहम क्यूं है ये,
ये सन्नाटा कैसी शै है ?
कि राह दिखती भी है
जो कभी उजाले में
हमारे पांव भटकते ही चले जाते हैं.
कैसी है ऊब के ये सन्नाटा,
सियासी रात के तारीक चिपचिपे पंजे,
गिरह लगा के कई राग और गीत कई घेरे हैं.
के गिरहबंद बहुत दिन, कई सवेरे हैं.
चलो के अब ये गिरह अब ही खुल के होगी फ़ना.
के अब तो ऊब में भी आ गई हैं झुर्रियां.
के गीत बस अभी खुल-खुल के सबपे बरसेंगे.
के फूल अब सभी आंखों में तैर जायेंगे.
के बात जब अभी रुक-रुक के थोड़ी निकलेगी,
तमाम रंग गली-कूचों में भर जायेंगे.
के बात टिकती है आ-आके सिर्फ़ गिरहों पर,
के रात रुकती है जा-जाके नई सुबह के पहले.
चलो, के चल के सभी गिरह हम रिहा कर दें.
चलो के आज बंद खिड़कियों को खोल दें हम.
रचनाकाल: मई 2005
2 टिप्पणियां:
badhiya likha hai..
लंबे वक्त बाद तुम्हें पढ़ा, अच्छा लगा कि प्रेम के सीने में कविता धड़क रही है अभी. बहुत अच्छा. KEEP IT UP.
- vijay s shukla
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